'सोशल साइंटिस्ट', सितंबर 1974 में प्रकाशित लेख का संक्षिप्त रूप
सिक्किम की कहानी संरक्षित प्रदेश से भारत में विलय तक
नरसिंहन राम
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इतिहास का पन्ना - सिक्किम: एक राष्ट्र के खोने का दर्द
ब्रिटिश राज से विरासत में मिला सिक्किम नामक 'संरक्षित क्षेत्र (प्रोटेक्टोरेट)' को 1950 की असमान संधि के जरिए भारत के करीब लाया गया। इसकी संवैधनिक और राजनीतिक स्थिति को अनिश्चित छोड़ दिया गया और इसकी संप्रभुता की अलग अलग ढंग से व्याख्या की गयी। 1954 के बाद भारत सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर प्रकाशित नक्शों में ब्रिटिश काल के दस्तूर को दरकिनार कर न केवल सिक्किम को बल्कि भूटान को भी भारत की सीमा के अंदर दिखाया गया। बावजूद इसके भारत के तत्कालीन विदेशमंत्री एम. सी.छागला ने 1967 में लोकसभा में कहा कि सिक्किम भारत का हिस्सा नहीं है।
इसके बाद भी नक्शों में इन दोनों हिमालयी राज्यों को भारत में ही दिखाया जाता रहा जबकि इन्होंने इस पर अपना एतराज भी जताया। इस बीच भारत ने सिक्किम के अंदर अपनी सेना और केंद्रीय रिजर्व पुलिस भेजीं, सामरिक महत्व की सड़कों का निर्माण किया और सिक्किम की मामूली सी अर्थव्यवस्था में भारतीय व्यापारियों की घुसपैठ केा बढ़ावा दिया।
अप्रैल 1973 में वहां हुए जनआंदोलन और भारत सरकार, चोग्याल तथा काजी लेंदुप दोरजी के त्रिपक्षीय समझौता होने के बाद एक नयी राजनीतिक और संवैधनिक व्यवस्था की गयी जिसे 'जनतांत्रिकरण कहा गया। 1974 के प्रारंभ में वहां चुनाव हुआ जिसमें काफी धांधली हुर्इ। इस चुनाव की देखरेख के लिए भारत ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस की चार बटालियनों को भेजा और चाखुंग क्षेत्र के सामंत काजी लेंदुप दोरजी की पार्टी 'सिक्किम नेशनल कांग्रेस के उम्मीदवारों द्वारा चुनाव में घोर अनियमितता की गयी जिसके नतीजे के रूप में यह पार्टी सत्ता में पहुंच गयी। सिक्किम नेशनल कांग्रेस को अपने चुनाव घोषणापत्र में भारत के साथ अपने 'एसोसिएशन का उल्लेख करने की हिम्मत नहीं हुर्इ। चुनाव प्रचार के दौरान भी उसने इस मुददे को किसी भी रूप में नहीं उठाया।
त्रिपक्षीय समझौते और गवर्नमेंट आफ सिक्किम ऐक्ट 1974 के जरिए एक तानाशाही भरा संविधान भारत सरकार द्वारा इस 'संरक्षित क्षेत्र' पर थोप दिया गया। 11 मर्इ 1974 को सिक्किम की एसेंबली ने भारत के साथ नये किस्म के सम्बन्ध बनाने से संबंधित एक प्रस्ताव पारित किया। यह प्रस्ताव एसेंबली में बेहद छल-कपटपूर्ण तरीके से पेश किया गया। एक भारतीय 'विधि विशेषज्ञ द्वारा तैयार किया गया यह प्रस्ताव तमाम कानूनी शब्दावलियों से भरा हुआ था और इसे बहुत जल्दबाजी में अंग्रेजी में पढ़ा गया जिसे एसेंबली के 80 प्रतिशत सदस्य समझ भी नहीं सके। इसके बाद हाथ उठाकर इसे पारित कर दिया गया।
35 वें संशोधन पर हंगामा
एसेंबली के 32 में से 6 सदस्यों ने प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने से इंकार किया और सिक्किम कांग्रेस के दो सदस्यों ने तो अपना विरोध दर्ज कराने के लिए गांधीवादी तरीके से एसेंबली के दरवाजे पर भूख हड़ताल की। सिक्किम के अंदर जनमत उबाल पर था। सिक्किम कांग्रेस के जो पुराने वफादार सदस्य थे वे भी पार्टी के खिलाफ हो गये क्योंकि वे समझ नहीं पाये कि उनके नेताओं ने अचानक इतना जबर्दस्त फैसला कैसे ले लिया। जबर्दस्त सेंसरशिप को भेदते हुए जो खबरें छन कर बाहर आ रही थीं उनसे यह पता चलता था कि किस तरह उन महत्वपूर्ण व्यक्तियों को भी, जो इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे थे, परेशान किया गया, उनसे बदसलूकी की गयी और एक तरह से उन्हें उनके मकानों में नजरबंद कर दिया गया। जिन लोगों ने प्रदर्शन करने की कोशिश की उसे भारत की सीआरपी (केंद्रीय रिजर्व पुलिस) और भारत सरकार द्वारा नियुक्त किये गये आपराधिक तत्वों ने विफल कर दिया। बेशक, भारत सरकार ने सिक्किम के विलय का विरोध करने वाले प्रदर्शनों को '35वें संविधान संशोधन के समर्थकों' का प्रदर्शन प्रचारित किया ।
भारतीय संसद में 35वां संविधान संशोधन विधेयक जबर्दस्त बहुमत से पारित हुआ- केवल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसदों ने ही इसके खिलाफ मत दिया। इस प्रकार सिक्किम को भारत सरकार का 'एसोसिएट' बना दिया गया और तय किया गया कि अबसे भारत सरकार ''सिक्किम के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए और कुशल प्रशासन तथा वहां सांप्रदायिक सदभाव सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार होगी।
सिक्किम के पश्चिमी पड़ोसी नेपाल ने अपनी नेशनल असेंबली के जरिए कड़ा विरोध व्यक्त किया, गुस्से से उबलते छात्रों और युवकों ने सड़कों पर तथा काठमांडो स्थित भारतीय दूतावास के बाहर प्रदर्शन किया। इस तथ्य की अनदेखी करते हुए कि सिक्किम की आबादी में तकरीबन 75 प्रतिशत लोग नेपाली मूल के हैं, भारत सरकार ने पहले तो यह कहा कि यह भारत का अंदरूनी मामला है और नेपाल को चुप रहना चाहिए, फिर अपने रुख में थोड़ी नरमी लाते हुए उसने नेपाल के अंदर पैदा आशंकाओं को अकारण बताया। सिक्किम के पूर्वी पड़ोसी भूटान ने, जो संयुक्त राष्ट्र का नया सदस्य बना था, अपनी नाखुशी जाहिर की और स्पष्ट किया कि भारत सरकार द्वारा भूटान के प्रशासन में घुसाये गये वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों सहित जो भारतीय 'सलाहकार यहां हैं उन्हें अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद फिर भूटान में आने की जरूरत नहीं है। उनकी जगह पर यथाशीघ्र भूटानी नागरिकों को नियुक्त किया जाएगा। बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका सहित दुनिया के अधिकांश देशों के अखबारों ने भारत सरकार की इस कार्रवार्इ के खिलाफ लिखा।
चीन के अखबार 'पीपुल्स डेली ने इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को 'भारत सरकार द्वारा किया गया एकालाप कहा। क्या इस टिप्पणी से कोर्इ भी व्यक्ति इंकार कर सकता है जो थोड़ा भी निष्पक्ष और र्इमानदार हो?
देश और लोग
सिक्किम हिमालय में स्थित एक छोटा सा देश है जिसका क्षेत्रफल 2818 वर्ग मील है और जो भारत के उत्तर पूर्व में है। इसके दक्षिण में तीस्ता घाटी है और उत्तर की तरफ हिमालय की पहाडि़यां तथा चीन का तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र है। सिक्किम के पश्चिम में नेपाल है, पूर्व में भूटान और दक्षिण में पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग जिला है। सिक्किम और भूटान के बीच एक संकरा त्रिभुज जैसा क्षेत्र है जो तिब्बत में आता है और जिसे चुम्बी घाटी कहते हैं। इसकी सीमाएं सिक्किम और भूटान दोनों को छूती हैं और दक्षिणी क्षेत्र से संचार के लिए तिब्बत का यह परंपरागत रास्ता रहा है।
हालांकि सिक्किम का क्षेत्रफल बहुत कम है लेकिन इसकी भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति ऐसी है जो इसे सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बना देती है। इसे 'गेटवे टु तिब्बत माना जाता है- खास तौर से ल्हासा तथा ग्यांत्से और यातुंग जैसे दक्षिण तिब्बत के मुख्य शहरों तक इसकी पहुंच की वजह से इसका महत्व बढ़ जाता है। हिमालय की पर्वत श्रृंखला को लांघने के लिए उत्तर पूर्व सिक्किम की तरफ से तीन रास्ते हैं। ये तीनों दर्रे हैं, जेलेप ला, नाथु ला और चो ला। सिक्किम की समूची आबादी को थोड़ी कठिनार्इ के साथ किसी विशाल आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय फुटबाल स्टेडियम में समाया जा सकता है। इसकी आबादी महज दो लाख है जबकि भूटान की आबादी 11 लाख और नेपाल की एक करोड़ तीस लाख है। सिक्किम की आबादी में तीन प्रमुख राष्ट्रीयताएं हैं जिनमें लेप्चा लोगों की आबादी 12 प्रतिशत है। इनकी भाषा सिक्किमी है जो तिब्बती से ही निकली हुर्इ है। दूसरी राष्ट्रीयता के अंतर्गत भूटिया लोग आते हैं जो तिब्बती मूल के हैं और जिनकी आबादी 13 प्रतिशत है। तीसरी राष्ट्रीयता में नेपाली मूल के लोग हैं और इनकी संख्या सबसे ज्यादा है क्योंकि आबादी में ये लोग 73 प्रतिशत हैं।
सिक्किम की अर्थव्यवस्था सामंती जमींदारी प्रथा पर आधरित है जहां स्वामित्व की धारणा बहुत प्रबल है। इन सामंती जमींदारों में सबसे ज्यादा प्रभुत्व चोग्याल और काजी समुदाय का है जो अपने अत्याचार के लिए भी जाने जाते हैं। जैसा किसी जमाने में तिब्बत में था, यहां अभी भी शोषण के अत्यंत घृणित तरीके इस्तेमाल में आते हैं। यहां का गरीब और मध्यम किसान कर्ज, सूदखोरी आदि का शिकार है और वह काफी पीडि़त रहता है। जमींदारों और उनके गुंडों से इन गरीब किसानों की बहू-बेटियों को भी आए दिन शोषण का शिकार होना पड़ता है। सिक्किम का मुख्य आहार चावल है और कुछ इलाकों में मोटे अनाज भी पैदा होते हैं। देखा जाय तो एक सामंती व्यवस्था में कृषि आधारित आबादी को जिस तरह बमुशिकल जिंदगी बसर करने का मौका मिलता है, वही स्थिति यहां है।
राजधनी गंगटोक और अन्य शहरों के बीच आर्थिक दृष्टि से बहुत बड़ा फर्क है। गंगटोक में आपको पत्थर से बने शानदार मकान, होटल, आधुनिक दुकानें और शराब के स्टोर्स मिल जाएंगे जिनका स्वामित्व मुख्य तौर पर भारतीय व्यापारियों और सूदखोरों के हाथ में है। सिक्किम के पास कोर्इ उल्लेखनीय उद्योग नहीं है-इसके मैदानी इलाके में शराब बनाने की एक फैक्ट्री जरूर है। सिक्किम में जस्ता, सीसा और तांबा की खानें हैं जिनके खनन में भी कुछ कंपनियां लगी हुर्इ हैं। बिजली पैदा करने के संसाधन यहां जरूर हैं लेकिन उसे न तो अंग्रेजों ने और न बाद में भारत सरकार ने विकसित किया।
सिक्किम को 'संरक्षित क्षेत्र' का दर्जा ब्रिटिश शासकों ने दिया था जिसे 1947 के बाद भी भारत सरकार ने जारी रखा। सिक्किम की पहचान और भारत की पहचान में हर दृष्टि से बहुत बड़ा अंतर है। सिक्किम की स्थापना 13वीं शताब्दी में लेप्चा लोगों ने किया था जो असम से भागकर यहां आए थे। असम उन दिनों तिब्बत का हिस्सा था। 1641 में उसकी एक राजनीतिक पहचान बनी जब ल्हासा के एक धर्म गुरु यहां आए और उन्होंने बौद्धधर्म में यहां के लोगों को प्रशिक्षित किया। उन्होंने ही 'पेंछू' नांग्याल को पहला राजा 'ग्याल्पो' नियुक्त किया। इन्होंने तिब्बत की सरकार के साथ राजनीतिक संबंध स्थापित किए। 18वीं शताब्दी के पहले तीन दशक में सिक्किम को अनेक हमलों का सामना करना पड़ा और इसे अपने कर्इ इलाकों से हाथ धोना पड़ा। पूर्वी मोर्चे पर भूटानी और पश्चिमी मोर्चे पर गोरखा युद्ध सम्राटों ने हमले किए। उन दिनों सिक्किम का क्षेत्रफल काफी बड़ा था और नेपाल का पूर्वी हिस्सा यानी इलाम जिला और आज के तिब्बत का महत्वपूर्ण हिस्सा चुम्बी घाटी तथा आज के ही भूटान की हा घाटी इसके हिस्से थे। इसकी दक्षिणी सीमा कालिम्पोंग और दार्जीलिंग तक जाती थी जो आज भारत में है।
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का आगमन
18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का संपर्क सिक्किम से हुआ। उन्होंने देखा कि नेपाल, सिक्किम और भूटान ये तीनों क्षेत्र किसी न किसी रूप में या तो चीन पर निर्भर हैं या इनकी निष्ठा चीन के प्रति ज्यादा है। वैसे भी तिब्बत इसे काफी हद तक अपना ही क्षेत्र मानता था। ब्रिटिश शासकों ने इस स्थिति को अपने लिए खतरनाक समझा और उन्हें लगा कि इससे चीन की ओर से कभी भी उन्हें चुनौती मिल सकती है। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश नीति को इस बात में सफलता मिल गयी कि वह इन इलाकों की निष्ठा अपने प्रति कायम कर सके। 1835 में सिक्किम के शासक को इस बात के लिए मजबूर किया गया कि वह दार्जीलिंग को 'जिसे दोरजी-लिंग कहा जाता था' र्इस्ट इंडिया कंपनी को 'उपहार स्वरूप' दे दें। रंजित नदी के दक्षिण का सारा इलाका ब्रिटिश भारत के अधीन आ गया। तत्कालीन भारत सरकार ने बदले में सिक्किम के शासक को प्रतिवर्ष तीन हजार रुपए का भत्ता देना तय किया जिसे बाद में बढ़ाकर 6000 रुपया कर दिया गया। इस घटना से तिब्बत बहुत नाराज हुआ। वह सिक्किम को अपने प्रभाव का क्षेत्र मानता था और फिर सिक्किम के राजा के साथ उसका व्यवहार बेहद कटु हो गया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद इस बात को लेकर काफी चिंतित था कि भारत की जनता किसी भी तरह रूस अथवा चीन के प्रभाव में न आए और भारत में जो राष्ट्रीय विचारों के नेता थे उन्होंने ब्रिटिश की इस साजिश को अच्छी तरह समझ लिया।
इस संदर्भ में आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के 1921 के उस प्रस्ताव को देखा जा सकता है जिसमें कहा गया है कि भारत सरकार की नीति किसी भी रूप में भारतीय जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं करती और उसकी इस नीति के पीछे भारत को ज्यादा समय तक गुलाम बनाए रखना है। प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि भारत को पड़ोसी देशों से किसी तरह का खतरा नहीं है और यह खतरा दिखाने के पीछे ब्रिटिश शासकों का मकसद पड़ोसी देशों को अपने अधीन करना है।
पड़ोसी देशों के अंतर्गत सिक्किम, भूटान और नेपाल का जिक्र महत्वपूर्ण है। लेकिन आगे चलकर कांग्रेस पार्टी और भारत के बड़े पूंजीपतियों का नजरिया चीन के प्रति बदलने लगा। जैसे-जैसे सत्ता हस्तांतरण का समय नजदीक आया कांग्रेस के नेताओं ने स्पष्ट कर दिया कि स्वाधीन भारत अपनी उत्तरी सीमाओं के बारे में उसी नीति का अनुसरण करेगा जो अंग्रेज शासकों ने बनायी हैं।
ल्हासा में दिखा असली रूप
जुलार्इ 1947 में तिब्बत के प्रतिक्रियावादी अधिकारियों ने जब कुछ आशंकाएं व्यक्त कीं तो ब्रिटिश सरकार और भारत सरकार ने औपचारिक तौर पर बयान जारी किया कि ब्रिटेन और तिब्बत के बीच जो समझौते हैं उनका पालन स्वाधीन भारत की सरकार करेगी और यह उम्मीद की गयी कि तिब्बत की सरकार भी भारत सरकार के साथ वैसा ही संबंध रखेगी जैसा उसने अंग्रेजों के अधीन वाली सरकार के साथ रखा था।
स्वाधीन भारत सरकार ने ब्रिटेन से इस बात का अधिकार प्राप्त कर लिया कि वह ल्हासा में अपने राजनीतिक एजेंट को नियुक्त करे; ग्यांत्से, गार्तोक और यातुंग में व्यापार एजेंसियां कायम रखे और ग्यांत्से में एक छोटा सैनिक केंद्र भी बना रहने दे। यह सही है कि सत्ता हस्तांतरण में ऐसा ही होता है लेकिन 1921 का जो प्रस्ताव था उसकी भावना के यह एकदम विपरीत था। 15 अगस्त 1947 को ल्हासा स्थित ब्रिटिश मिशन को औपचारिक तौर पर इंडियन मिशन का नाम दिया गया। ब्रिटेन के अंतिम प्रतिनिधि एच.र्इ.रिचर्डसन को भारतीय प्रतिनिधि के रूप में वहां रहने दिया गया।
1949 के मध्य में तिब्बत के अधिकारियों ने चीनी मिशन को यह कहते हुए ल्हासा से निष्कासित कर दिया कि उन्हें डर है कि साम्यवाद का प्रभाव फैल जाएगा। तिब्बत ने भारत सरकार से हथियारों की मांग की और भारत सरकार ने इस मांग पर अनुकूल कदम उठाए। सिक्किम के राजा और उनकी अमेरिकी पत्नी होप कूक भारतीय सेना के कुछ उच्च अधिकारी समझौते के लिए तिब्बत भेजे गए और 1949 के समाप्त होने तक भारत सरकार ने सिक्किम स्थित अपने राजनीतिक अधिकारी को ल्हासा भेजा। चीनी क्रांति की पूर्ण सफलता से कुछ माह पूर्व तक इसके नेता तिब्बत में भारत सरकार के हस्तक्षेप की तीव्र भर्त्सना कर रहे थे। 'वर्ल्ड कल्चर' नामक पत्रिका में कहा गया कि ऐसी स्थिति में जब अमेरिकी साम्राज्यवाद सुदूरपूर्व के बाजारों पर कब्जा करने के लिए तिब्बत के खिलाफ हमले में सक्रिय रूप से भाग ले रहा हो और इस इलाके में अपने जासूस और एजेंट भेज रहा हो, दुख की बात है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारत सरकार ने मिलकर यह घोषणा की कि तिब्बत कभी भी चीन की अधीनता नहीं ग्रहण करेगा। आगे चलकर 1959 में चीन की सरकार ने खुले तौर पर आरोप लगाया कि तिब्बत के प्रतिक्रांतिकारियों के साथ भारत के प्रतिक्रियावादी तत्व खुले तौर पर सांठगांठ कर रहे हैं और इन्होंने तिब्बत में चीन विरोधी विद्रोही गतिविधियों को बढ़ावा दिया तथा इन विद्रोहियों के लिए कालिम्पोंग में केन्द्र स्थापित होने दिया।
अभी हाल में नेपाल के गृहमंत्री ने कुछ ऐसे 'ताकतवर और समृद्ध देशों पर जिनकी दिलचस्पी इस क्षेत्र में है' आरोप लगाया कि इन्हाेंने खम्पा विद्रोहियों (जिन्होंने नेपाल के मुस्तांग जिले में शरण ले रखा था) की मदद की ताकि उत्तरी क्षेत्र में समस्या पैदा हो सके।
इसमें छुपे तौर पर भारत सरकार पर प्रहार किया गया था। नेपाली अखबारों ने खबर दी कि 'खम्पा समस्या' (जो मुख्य तौर पर तिब्बत में चीनी सत्ता के खिलाफ छापामार युद्ध है) 1959 में दलार्इ लामा के पलायन से नहीं बल्कि 1952-53 में ही अस्तित्व में आ गयी थी। इन अखबारों ने खबर दी कि नर्इ दिल्ली को आधार बनाते हुए आंध्र प्रदेश के एक सांसद डाक्टर लंकासुंदरम ने अमेरिकी सहयोग से एक ग्रुप बनाया जिसमें पाल्देन थोनदुंग नांग्याल (सिक्किम के वर्तमान चोग्याल), काजी लेंदुप दोरजी (सिक्किम के वर्तमान मुख्यमन्त्री), पटना के कोर्इ कमल शर्मा और तिब्बत के एक व्यापारी शेरिंग शामिल थे जिनको जिम्मेदारी सौंपी गयी थी कि चीन के शासन वाले तिब्बत में वे प्रतिक्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन कराएं।
भारत और सिक्किम-नेहरू की नीति
इन परिस्थितियों में स्वतंत्र भारत को ब्रिटेन से विरासत में मिली उत्तरी सीमा की समस्याओं से निपटने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसमें कोर्इ संदेह नहीं कि नेहरू की सरकार ने एक स्वाधीन या स्वायत्त तिब्बत को चीनी क्रांति के खिलाफ एक 'बफर राज्य' के रूप में स्वीकार किया लेकिन यह नीति अधिक समय तक चलने वाली नहीं थी। जैसा कि नेवली मेक्सवेल ने अपनी पुस्तक में लिखा, ''इस उपमहाद्वीप में ब्रिटिश शासन की समाप्ति और कम्युनिस्ट चीन के उदय के साथ ही हिमालय से उत्तर का न कि दक्षिण का महत्व ज्यादा बढ़ गया। इसको उस समय बहुत ठोस ढंग से देखा गया जब चीन ने तिब्बत पर अपने अधिकार की जोर देकर घोषणा की।
स्वतंत्र भारत की सरकार ने कम्युनिस्ट चीन के साथ मिलकर सिक्किम -तिब्बत सीमा विवाद को हल करने की काफी कोशिश की और इसके लिए 1890 के समझौते को आधार बनाया। चीन ने भारत सरकार के साथ समझौता करने से लगातार इन्कार किया क्योंकि उसका कहना था कि सिक्किम एक स्वाधीन देश है जिसे भारत ने गैरकानूनी ढंग से अपने में मिला लिया है। तो भी भारत सरकार ने उस छोटे से देश सिक्किम पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखी और इसी की परिणति 1975 में इसके विलय के साथ हुर्इ।
1947 में सिक्किम की जनता में जबर्दस्त बेचैनी देखने को मिली। सामंती दमन से उत्पीडि़त वहां की तीनों राष्ट्रीयताओं को चोग्याल के घृणित शासन में ही अपना दुश्मन दिखायी देने लगा। इस असंतोष के फलस्वरूप जो आंदोलन विकसित हुआ उसने जमींदारी प्रथा के उन्मूलन की मांग की और कहा कि एक प्रतिनिधिक सरकार की पूर्व पीठिका के रूप में देश के अंदर असेम्बली का गठन हो।
उन दिनों भारत की अंतरिम सरकार के एक मन्त्री की हैसियत से जवाहरलाल नेहरू ने महाराज कुमार (मौजूदा चोग्याल) और सिक्किम दरबार के अन्य प्रतिनिधियों से जनवरी 1947 में मुलाकात की। अब वह नीति आकार लेने लगी थी जिस नीति का पालन आगे चलकर भारत सरकार को करना था: सिक्किम को एक 'संरक्षित प्रदेश' बना कर रखो और सिक्किम की जनता के जनतांत्रिक अधिकारों का बर्बरता के साथ दमन करो। इसके साथ ही जहां तक संभव हो चोग्याल, काजियों और उनके प्रतिनिधि के रूप में सक्रिय सभी प्रतिक्रियावादी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों को विकसित होने दो। लोकप्रिय आंदोलन के नेताओं को महल की दीवाल से बाहर पटाते रहो। इन आंदोलनों के जुझारूपन पर बारीकी से निगाह रखो और इनके बीच कुछ ऐसे लोगों की घुसपैठ करा दो जो चीख चीख कर कहते हों कि 'भारत सरकार के साथ घनिष्ठ संबंध बनाओ। साथ ही साथ यह भी घोषणा करते रहने की जरूरत है कि यही मांग सिक्किम की जनता की आकांक्षा को अभिव्यक्त करती है।
1947 के बाद की अवधि में लोकप्रिय आंदोलन के कुछ नेताओं के अवसरवाद के बावजूद जनता के बीच जो जुझारूपन था उसने भारत सरकार की नीयत में खोट देखी। 1 मर्इ 1949 को 5 हजार से भी अधिक लोगों के एक समूह ने गंगटोक में चोग्याल के महल पर हमला बोल दिया। चोग्याल दहशत में आ गए। भारतीय सेना ने दखल दिया और भीड़ में लोगों को बड़ी बबर्रतापूर्वक पीटते हुए किसी तरह चोग्याल को बचाया।
1950 की असमान संधि
1949 की इस कार्रवार्इ ने 1950 की मैत्री संधि का रास्ता खोल दिया। इस संधि ने भारत और सिक्किम के बीच हुए सभी पुराने समझौतों को रद्द करते हुए अपने दूसरे अनुच्छेद में कहा कि 'सिक्किम एक संरक्षित प्रदेश की हैसियत बनाए रखेगा'। इस असमान संधि ने सिक्किम के सैनिक मामलों को देखने की समूची जिम्मेदारी भारत को दे दी। सिवाय कुछ अंगरक्षक रखने के अलावा चोग्याल को इस बात का कोर्इ अधिकार नहीं था कि वह कोर्इ सेना रखें या किसी तरह का हथियार खरीदें। भारत सरकार को अकेले यह अधिकार दिया गया कि वह सिक्किम में कहीं भी अपनी सेना रखे। (इस प्रावधन के पफलस्वरूप भारत की एक सक्रिय 17वीं माउंटेन डिवीजन सिक्किम में तैनात है। इसके अलावा फोर्थ कार्प्स जिसका मुख्यालय सिलीगुड़ी में है और र्इस्टर्न कमांड के सैनिक जिसका मुख्यालय कलकत्ता में है, वे भी सिक्किम में तैनात हैं। कालिम्पोंग में भी एक माउंटेन डिवीजन है जिसकी गतिविधियां सिक्किम में जारी हैं।) भारतीय पुलिस को इस बात का पूरा अधिकार दे दिया गया कि वह सिक्किम के किसी भी हिस्से में किसी भी व्यक्ति से बेरोकटोक पूछताछ कर सकता है। संधि के अनुसार सिक्किम को इस बात का अधिकार नहीं होगा कि वह किसी दूसरे देश के साथ सरकारी स्तर पर औपचारिक अथवा अनौपचारिक संपर्क स्थापित करे। सिक्किम की संचार प्रणाली के लिए भारत को एकमात्र जिम्मेदार ठहराया गया। संधि में इस बात का प्रावधन था कि भारत से आने वाले सामान पर सिक्किम किसी भी तरह का शुल्क न लगाए। इतना ही नहीं, आंतरिक प्रशासन के लिए यह व्यवस्था की गयी कि इसे कोर्इ आर्इएएस अधिकारी देखेगा जिसे भारत सरकार और चोग्याल संयुक्त रूप से नामजद करेंगे। इस संधि ने एक तरफ तो सिक्किम की जनता को अपने मामले खुद संचालित करने के अधिकार से वंचित कर दिया और दूसरी तरपफ ऐसी व्यवस्था भी की कि किसी अनुच्छेद की व्याख्या पर पैदा विवाद की अवस्था में 'उस विवाद को भारत के चीफ जसिटस के पास ले जाया जाएगा और उनका फैसला अंतिम फैसला होगा।'
1973 का जन आंदोलन
1957-1973 के बीच सिक्किम में पांच बार चुनाव हुए जिनमें नेपाली मूल के लोगों को बहुत कारगर तरीके से इसमें भाग लेने से वंचित कर दिया गया। इस असेम्बली की एक सजावटी भूमिका मात्रा रह गयी। पिछले वर्ष का आंदोलन उस घोर असंतोष की अभिव्यक्ति थी जो वहां की जनता चोग्याल, काजियों और भारत सरकार द्वारा स्थापित सामाजिक आर्थिक प्रणाली की क्रूरता के रूप में झेल रही थी। उसके पास कोर्इ ऐसा जनतांत्रिक मंच नहीं था जहां वह अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को व्यक्त कर सके।
अप्रैल 1973 में सिक्किम के विभिन्न इलाकों की जनता गंगटोक में इकटठा हुर्इ और उसने चोग्याल को गद्दी से हटाने का निर्णय लिया। चोग्याल के उदंदड बेटे ने एक जीप ली और गंगटोक के बाजार में गया तथा वहां उपस्थित भीड़ पर उसने अन्धाधुन्ध गोलियां चलायीं जिसने वहां मौजूद जनसमूह को गुस्से से भर दिया। भारतीय सेना और सीआरपी को बड़े पैमाने पर संचालित किया गया ताकि यह विद्रोह बेकाबू न हो जाय। सेना और पुलिस की मौजूदगी से जनता पर जब कोर्इ असर नहीं पड़ा तो भारतीय सैनिकों ने आंसू गैस का इस्तेमाल किया और भीड़ पर जबर्दस्त लाठीचार्ज किया।
इस मुकाम तक आते-आते आंदोलन काजी लेन्दुप दोरजी के हाथ में पहुंच गया था। विद्रोह समाप्त होने के तुरत बाद एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ और यह घोषणा की गयी कि 1974 के प्रारंभ में सिक्किम में ताजा चुनाव कराए जाएंगे। तय हुआ कि 32 सदस्यों की असेम्बली में 15 सदस्य लेप्चा-भूटिया समुदाय के, 15 नेपाली मूल के, एक बौद्ध संघ के और एक अनुसूचित जाति के होंगे। आरक्षण की यह व्यवस्था पूरी होने के बाद एक व्यक्ति एक वोट के आधार पर मतदान कराए जाएंगे। समझौते की दूसरी प्रमुख बात यह थी कि सिक्किम के लिए नया संविधान बनाने के मकसद से भारत सरकार एक 'विधि विशेषज्ञ' नियुक्त करेगी।
चुनावों में सिक्किम कांग्रेस को जबर्दस्त बहुमत मिला और काजी लेन्दुप दोरजी असेम्बली के नेता तथा सिक्किम के मुख्यमन्त्री बनाए गए। यह चुनाव कैसे हुआ इसकी गूंज भारत के संसद में सुनायी दी: 'सिक्किम असेम्बली का एक सदस्य जो नाबालिग था अपने मृत भार्इ के स्थान पर चुना गया। 21 वर्ष की एक छात्रा जो कालिम्पोंग कालेज में पढ़ती थी कम उम्र के बावजूद चुनी गयी। इन अनियमितताओं के अलावा चुनाव में जबर्दस्त धांधली हुर्इ। सेंट्रल रिजर्व पुलिस की चार बटालियनें गांव में गयीं और उन्होंने जनता को डराया धमकाया। 'यूनाइटेड इंडिपेंडेंटस (जिन्होंने आगे चलकर 'सिक्किम प्रजातंत्र पार्टी बनायी) ने चुनाव आयोग से शिकायत की लेकिन उस पर कोर्इ ध्यान नहीं दिया गया।
अपने आंतरिक मामलों को खुद हल करने के सिक्किम जनता के अधिकार का जिस बेशर्मी के साथ उल्लंघन किया गया उसे किस तरह भारत सरकार ने न्यायोचित ठहराया? आइए इसकी मुख्य दलीलों पर गौर करें:
स्वायत्तता की रक्षा
भारत सरकार के प्रवक्ता के अनुसार सिक्किम अभी भी अपनी 'स्वायत्तता' अथवा 'अस्मिता' को बनाए हुए है। जो कुछ भी किया गया उसका मकसद 'संरक्षित क्षेत्र' की बजाय इसकी हैसियत को 'एसोसिएट' करके इसे 'भारतीय संघ के ज्यादा करीब' लाया गया। मुख्य कार्यकारी अधिकारी को जिस तरह के तानाशाहीपूर्ण अधिकार दिए गए और जिस तरह वहां की असेम्बली के कामकाज को चलाया गया उससे इस दावे की पोल खुल जाती है। अगर 1950 की संधि जबर्दस्त ढंग से असमान संधि थी तो गवर्नमेंट आफ सिक्किम ऐक्ट 1974 और 35वें संविधान संशोधन विधयक के जरिए भारत सरकार ने सिक्किम के हाथ और पैर दोनों बांधकर रख दिए। 1974 के इस ऐक्ट के प्रावधनों के अनुसार सिक्किम का प्रशासन-प्रमुख मुख्य कार्यकारी अधिकारी होगा जिसे भारत सरकार नामजद करेगी और जिसकी नियुक्ति चोग्याल द्वारा की जाएगी। इस मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पास वे सभी अधिकार होंगे जिसके जरिए वह 'भारत सरकार द्वारा जारी सभी आदेशों अथवा निर्देशों अथवा भारत सरकार के किसी भी फैसले को लागू करने का काम सुनिश्चित करेगा। (अनुच्छेद-28-3) अगर किसी मामले में भारत सरकार की राय से चोग्याल की राय भिन्न होगी तो 'अंतिम फैसला भारत सरकार का होगा (अनुच्छेद 29-2) मुख्य कार्यकारी अधिकारी ही असेम्बली का अध्यक्ष होगा और वह स्पीकर की तरह काम करेगा। मुख्यमन्त्री तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति 'मुख्य कार्यकारी अधिकारी' की सलाह पर चोग्याल द्वारा की जाएगी (अनुच्छेद-25-1) वित्त, गृह, अल्पसंख्यकों से संबंधित मामलों और चोग्याल तथा सिक्किम सरकार के सम्बन्धों के बारे में बनाए जाने वाले किसी भी कानून के संदर्भ में मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पास वीटो का अधिकार होगा।
जनता की आकांक्षा
भारत सरकार का दावा है कि सिक्किम को देश में मिलाने से 'सिक्किम की जनता की आकांक्षाओं' की अभिव्यक्ति होती है जैसा कि असेम्बली के माध्यम से उन्होंने प्रकट किया था। निश्चय ही सिक्किम की जनता के साथ किया गया यह एक क्रूर मजाक है। ऐसे किसी भी देश की तरह जो दूसरे देश की जनता पर अपने जनतंत्र विरोधी इरादों को थोपता है, भारत सरकार ने भी 'जनतंत्र की रक्षा' और 'जनतंत्र के विस्तार' के नाम पर वैसा ही किया है।
केन्द्र की कांग्रेसी सरकार का यह दावा कि उसने सिक्किम में जनतंत्र की रक्षा की है कर्इ सवाल खड़े करती है:
जनता की जनतांत्रिक आकांक्षाओं की रक्षा करने की बात कहना भारत सरकार को शोभा नहीं देता। हाल के वर्षों में इसी सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलापफ 'मीसा' (मेन्टेनेंस आफ इंटर्नल सेक्योरिटी ऐक्ट) का इस्तेमाल किया, हजारों की संख्या में हड़ताली रेल कर्मचारियों को गिरफ्तार किया और सैकड़ों राजनीतिक विरोधियों की हत्या तक की।
सिक्किम की जनता की मुख्य आकांक्षा अपने देश से जमींदारी प्रथा को और चोग्याल तथा काजियों की घृणित संस्था को समाप्त करना है। जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने के नाम पर भारत सरकार ने चोग्याल और काजियों की संस्था को नया जीवन दिया है और सिक्किम की राष्ट्रीय अस्मिता को निगल लिया है।
सिक्किम की जनता भारत सरकार, चोग्याल और काजी लेन्दुप दोरजी द्वारा पैदा किए गए भय के माहौल से कभी न कभी छुटकारा पायेगी और प्रतिरोध करेगी। हिमालय क्षेत्र के इस छोटे से देश को भारत में मिलाकर श्रीमती गांधी की सरकार ने उत्तरी सीमा के पास एक गलत नजीर की बुनियाद रख दी है। अब इसके अंतर्राष्ट्रीय और आंतरिक दुष्परिणाम जो भी हों, उसे भुगतने के लिए इसे तैयार रहना चाहिए।
टिप्पणियां :
1. नेवली मैक्सवेल, 'इंडियाज चाइना वार' जैको पबिलशिंग हाउस, बम्बर्इ, पृ. 83
2. 5 सितंबर 1974 के 'स्टेटसमैन' में प्रकाशित सिक्किम यूथ कांग्रेस के प्रतिनिधि के.एन.उपरेती का पत्र
3. वही
4. 5 सितंबर 1974 के 'दि हिन्दू' में प्रकाशित रिपोर्ट-'भूटान अगेन्टस एप्वाइंटमेंट आफ न्यू इंडियन एडवाइजर्स' और 21 सितंबर 1973 को साप्ताहिक, 'एवरीमैन्स' में प्रकाशित लेख 'भूटान एसर्टस इटस इंडिपेंडेंस' भी देखें।
5. 4 सितंबर 1974 को 'दि हिन्दू' में प्रकाशित रिपोर्ट-'चाइना क्रिटिसाइजेज सिक्किम बिल'
6. 1904 से भारतीयों ने और मुख्य रूप से मारवाडि़यों, सूदखोर महाजनों और व्यापारियों ने सिक्किम में अपने पैर जमाने शुरू कर दिए थे। वे ब्याज की दर 37.5 प्रतिशत से लेकर 100 प्रतिशत तक लेते थे। सिक्किम की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उनके चंगुल में फंसता चला गया। सिक्किम में परोपजीवियों के इस वर्ग के आगमन का इतिहास जानने के लिए देखें चार्ल्स वेल की पुस्तक 'तिब्बत पास्ट ऐंड प्रेजेंट', आक्सपफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1924, पृ. 262
7. ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के आने तक की राजनीतिक घटनाओं के बारे में जानकारी के लिए हमने मुख्य रूप से प्रधुम्न पी. करन और विलियम एम. जेनकिन्स की पुस्तक 'दि हिमालयन किंगडम्स: भूटान, सिक्किम ऐंड नेपाल ;प्रिंस्टन, 1963' का सहारा लिया है। इस पुस्तक में भारत सरकार की जिस तरह प्रशंसा की गयी है और चीन को कोसा गया है उससे सिक्किम में अमेरिकी साम्राज्यवादी हितों का पता चलता है।
8. नेवली मैक्सवेल, पृ. 37
9. इस विषय पर तथा समूचे क्षेत्र में ब्रिटेन की औपनिवेशिक नीति के बारे में आमतौर पर जानकारी लेने के लिए हमने एलेस्टर लैम्ब की पुस्तक 'ब्रिटेन एेंड चाइनीज सेंट्रल एशिया: दि रोड टु ल्हासा 1767 टु 1905 ;लंदन, 1960' तथा चार्ल्स बेल और मैक्सवेलकी उपरोक्त पुस्तक का सहारा लिया है।
10. नेवली मैक्सवेल, वही पृ. 67
11. गुन्नार मिरडल की पुस्तक 'एशियन ड्रामा: ऐन इंक्वायरी इन टु दि पावर्टी आफ नेशंस-खंड1 ;न्यूयार्क 1968 में पृ. 181 पर उद्धृत
12. देखें एच.र्इ. रिचर्डसन की पुस्तक, 'तिब्बत ऐंड इटस हिस्ट्री ;आक्सफोर्ड, 1962' पृ. 173
13. वही पृ. 173
14. वही पृ. 178
15. गिरिलाल जैन, 'पंचशील एेंड आफ्रटर: ए रिप्रेजल आफ सिनो इंडियन रिलेशन इन दि कांटेक्टस आफ दि तिब्बतन इनसरेक्सन, 9 सितंबर 1949
16. न्यू चाइना न्यूज एजेंसी, 28 मार्च 1959
17. ब्रह्राानंद मिश्र, 'नेपाल, हू आर्म्ड दि खंपाज, इकोनामिक एेंड पोलिटिकल वीकली, 7 सितंबर 1974
18. गंगटोक सिथत राजनीतिक अधिकारी चार्ल्स बेल ने 1924 में यह सबक लिया, 'तिब्बत में भी बोल्शेविक प्रभाव के खिलापफ हमारे पास एक आदर्श अवरोध है... मंगोलिया में तैनात चीनी सैनिकों पर बोल्शेविकोंका प्रभाव देखने को मिला है। अगर चीन ने फिर से तिब्बत पर अधिकार कर लिया तो उसके सैनिक... शायद भारत के खिलाफ बोल्शेविकों की चाल को सामने ला सकें। (बेल, उपरोक्त, पृ. 191) 35 वर्षों बाद अन्ना लुर्इ स्ट्रांग ने लगभग यही बात कहीं-'...जब हर्ष के गीत तिब्बत को पार करते हुए गूंजेंगे तो भौतिक और भावनात्मक तूफान से बंद हुए ;भारत के) दरवाजे भी खुल जाएंगे। (चाइना रिकांस्ट्रक्ट, मार्च 1960)। इन सबका उल्लेख गिरिलाल जैन के लेख में है।
19. नेवली मैक्सवेल, उपरोक्त पृ. 70
20. सीपीआर्इ (एम) की केन्द्रीय कमेटी का बयान 'आन सिक्किम' और रिपोर्ट 'दि अनइक्वल ट्रीटी ऐंड नाउ दि एब्जाब्सन ;पीपुल्स डेमोक्रेसी, 15 सितंबर 1974)
21. 7 सितंबर 1974 की राज्य सभा की कार्यवाही देखें। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मैथ्यू कुरियन का भाषण देंखे।
22. राज्य सभा में स्वर्ण सिंह का बयान, 7 सितंबर 1974
23. पीपुल्स डेमोक्रेसी की उपरोक्त रिपोर्ट
24.लोकसभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता समर मुखर्जी का 5 सितंबर 1974 का भाषण।
25. नेवली मैक्सवेल पृ. 173-288 26. लोकसभा में सीपीआर्इ के नेता भोगेन्द्र झा का भाषण, इंडियन एक्सप्रेस 5 सितंबर, 1974
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